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अव॒ त्वे इ॑न्द्र प्र॒वतो॒ नोर्मिर्गिरो॒ ब्रह्मा॑णि नि॒युतो॑ धवन्ते। उ॒रू न राधः॒ सव॑ना पु॒रूण्य॒पो गा व॑ज्रिन्युवसे॒ समिन्दू॑न् ॥१४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ava tve indra pravato normir giro brahmāṇi niyuto dhavante | urū na rādhaḥ savanā purūṇy apo gā vajrin yuvase sam indūn ||

पद पाठ

अव॑। त्वे इति॑। इ॒न्द्र॒। प्र॒ऽवतः॑। न। ऊ॒र्मिः। गिरः॑। ब्रह्मा॑णि। नि॒ऽयुतः॑। ध॒व॒न्ते॒। उ॒रु। न। राधः॑। सव॑ना। पु॒रूणि॑। अ॒पः। गाः। व॒ज्रि॒न्। यु॒व॒से॒। सम्। इन्दू॑न् ॥१४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:47» मन्त्र:14 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:32» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उस राजा का कौन गुण सेवन करते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वज्रिन्) शस्त्र और अस्त्रों से युक्त (इन्द्र) राजन् ! जो (त्वे) आप में (नियुतः) निश्चित सत्यवाद जिनमें ऐसी (गिरः) श्रेष्ठ वाणियाँ (ब्रह्माणि) धनों वा अन्नों को और (प्रवतः) निम्नों को (ऊर्मिः) लहर (न) जैसे वैसे (अव, धवन्ते) चलाती हैं और (उरू) बहुत (राधः) धनों को (न) जैसे वैसे (पुरूणि) बहुत (सवना) प्रेरणायें प्राप्त होती हैं और जिस कारण (अपः) जलों (गाः) भूमि वा वाणियों को और (इन्दून्) आनन्दों को (सम्) (युवसे) संयुक्त करते हो, इससे आप श्रेष्ठ हो ॥१४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो ब्रह्मचर्य्य आदि श्रेष्ठ कर्मों को करते हैं, उनको नीचे के स्थान को जल जैसे और पुरुषार्थी को लक्ष्मी जैसे वैसे सम्पूर्ण विद्या, सम्पूर्ण ऐश्वर्य और सम्पूर्ण आनन्द प्राप्त होते हैं ॥१४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तं राजानं के गुणा सेवन्त इत्याह ॥

अन्वय:

हे वज्रिन्निन्द्र ! यस्त्वे नियुतो गिरो ब्रह्माणि प्रवत ऊर्मिर्नाऽव धवन्ते, उरू राधो न पुरूणि सवनाऽव धवन्ते यतोऽपो गा इन्दूँश्च संयुवसे तस्माद्भवाञ्छ्रेष्ठोऽस्ति ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अव) (त्वे) त्वयि (इन्द्र) राजन् (प्रवतः) नम्रान् (न) (ऊर्मिः) तरङ्गः (गिरः) सुवाचः (ब्रह्माणि) धनान्यन्नानि वा (नियुतः) निश्चितसत्यवादाः (धवन्ते) चालयन्ति (उरू) बहु (न) इव (राधः) धनानि (सवना) सवनानि प्रेरणानि (पुरूणि) बहूनि (अपः) जलानि (गाः) भूमीर्वाचो वा (वज्रिन्) शस्त्रास्त्रयुक्त (युवसे) संयोजयसि (सम्) (इन्दून्) आह्लादान् ॥१४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये ब्रह्मचर्यादीनि शुभानि कर्माण्याचरन्ति तान्निम्नदेशं जलमिव पुरुषार्थिनं श्रीरिव सर्वा विद्याः सकलमैश्वर्य्यमखिलानन्दश्च प्राप्नुवन्ति ॥१४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे ब्रह्मचारी इत्यादी श्रेष्ठ कर्म करतात ते निम्न स्थानी जसे जल व पुरुषार्थी लोकांना जशी लक्ष्मी प्राप्त होते तसे संपूर्ण विद्या, ऐश्वर्य व संपूर्ण आनंद प्राप्त करतात. ॥ १४ ॥